बे-शक गधे आम नहीं खाते
गधे हैं, जो आम नहीं खाते ! ये मैं नहीं कहता | ये तो उर्दू के अज़ीम शायर जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहब कहा करते थे जो आमों के ख़ुद एक एक बहुत बड़े रसिया थे | एक बार का वाक़्या है, मिर्ज़ा ग़ालिब, एक साहब के साथ जिन्हें आमों से बहुत चिढ़ थी के साथ गुफ़्तुगू फ़रमा रहे थे तभी उन साहब ने देखा, एक गधा आम की टोकरी के नज़दीक गया, आम को सूंघा और वापस हो लिया | ये देख कर कि ये तो आम हैं कुछ ख़ास नहीं, और इस बात पर उन साहब ने ग़ालिब से कहा, “देखा ग़ालिब साहब ! ‘पता नहीं आपको आम हैं क्यूँ इतने भाते, अरे आम तो गधे तक नहीं खाते’ और एक आप हैं“ ! इस पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने सर हिला कर फ़रमाया, “हाँ हुज़ूर, आप सच ही हैं फ़रमाते, बे-शक गधे आम नहीं खाते” |
हमारे अवध में आम की एक ख़ासम-ख़ास किस्म पायी जाती है जिसे दशहरी आम के नाम से जाना जाता है | इसका नाम दशहरी लखनऊ के काकोरी के पास बसे एक गाँव दसहरी के नाम पर पड़ा | वैसे तो ये आम है लेकिन इसके स्वाद में वो लज़्ज़त है जो इसे ख़ास बना देता है | दशहरी आम की एक ख़ासियत और भी है और वो ये है कि ये कच्चा होने पर भी मीठा लगता है | और यही वजह है इसे फलों का राजा भी कहा जाता है | इस दशहरी आम की वैसे तो तमाम दास्ताने मशहूर हैं लेकिन एक ख़ास बात ये थी, जब कभी भी ये आम किसी को दिया जाता था तो इसमें छेद करके दिया जाता था ताकि कोई दूसरा इसे न ऊगा सके लेकिन मलीहाबाद के एक शख़्स ने नवाबों के माली की मदद से इसका एक पेड़ हासिल कर लिया और फिर इस आम ने पूरी दुनिया को अपना दीवाना बना दिया |
आप इस मिसाल से तो यक़ीनन ही वाक़िफ़ होंगे, "आम के आम और गुठलियों के दाम" | तो ये मिसाल बिलकुल दुरुस्त कही गयी है और इसकी वजह भी एकदम साफ़ है | आम के दरख़्त, पत्तों और इसकी छालों से लेकर आम की गुठलियों के अंदर की बिजली तक इस्तेमाल में आती है | आम के पत्ते हिन्दू मज़हब में पूजा पाठ में, आम की गुठलियों के अंदर की बिजली हाज़मा बुकनू में, इसकी छाल दवा में और इसकी लकड़ी हवन में इस्तेमाल की जाती है |
अगर हम माजी में नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि चाहे अमीर रहा तो या फिर चाहे फ़कीर | हर कोई आम का दीवाना था | मैं इस बात की ठीक से तसदीक़ तो नहीं कर सकता लेकिन इसकी उम्र चार हज़ार बरस के आस-पास की होगी और ये यहीं हिन्दुस्तान उपमहाद्वीप में ही पैदा हुआ | कहते हैं, मुग़ल बादशाह अकबर और शाहजहाँ भी आम के अच्छे ख़ासे शौक़ीन थे और अपने खानसामे से आम से बनी तमाम चीज़ें बनवाते थे, और खानसामे को इनाम और इकराम से भी नवाज़ते थे | चीनी मुसाफ़िर ह्वेनसांग के हिन्दुस्तान आने के बाद ही दुनिया को इस अज़ीम फल के बारे में पता चला |
उर्दू-हिंदवी के पहले शायर मशहूर सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शागिर्द और मौसिकीकार, तबला और सितार जैसे साज़ों को ईजाद करने वाले अमीर ख़ुसरो आम पर लिखते हैं,
बरसा बरस वो देस में आवे, मुँह से मुँह लगा रस पियावे
वा ख़ातिर में ख़र्चे दाम ऐ सखी साजन ना सखी आम
आम का ज़िक्र हो और मलिहाबाद का ज़िक्र न किया जाए ! ये बिलकुल ऐसा होगा जैसे रोशनी की बात तो कि जाए लेकिन चिराग की बात न की जाए | जब-जब मलिहाबाद का ज़िक्र होगा तो आम के साथ-साथ जोश मलीहाबादी और उनकी आम से मोहब्बत का ज़िक्र होना भी लाज़मीं है | आम की तारीफ में इंक़लाबी शायर जोश मलिहाबाद हिन्दुस्तान छोड़ते वक़्त आमों को याद करते हुए कहते हैं,
ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा
आम के बाग़ों में जब बरसात होगी पुरखरोश
मेरी फ़ुरक़त में लहू रोएगी चश्मे मय फ़रामोश
रस की बूंदें जब उडा देंगी गुलिस्तानों के होश
कुन्ज-ए-रंगीं में पुकारेंगी हवाएं ‘जोश जोश’
सुन के मेरा नाम मौसम ग़मज़दा हो जाएगा
एक मह्शर सा गुलिस्तां में बपा हो जाएगा
ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा
आख़िर में मैं आपको इक़तिदार जावेद साहब की आम पर लिखी इस ख़ूबसूरत नज़्म के साथ छोड़े जाता हूँ और हाँ, एक बात ग़ौरतलब हो, अगर आप आम नहीं खाते तो एक बार इसे ज़रूर खाएं | यक़ीन मानिये, आप आमों के दीवाने हो जाएंगे |
वो फल है रस-भरा
या फल की रस-भरी असास है
है सब के सामने
या ऐन दरमियान पेड़ के
छुपा हुआ है बीज की तरह
लबों को खोलती हुई
वो आम गुफ़्तुगू है
या लबों को सील करता
इक मुआमला-ए-ख़ास है
मिरी तरह वो शाद-काम है
या ख़ानदान वालों की तरह उदास है
वो आ गया तो हो गई है जामुनी फ़ज़ा
या और है कोई
कि जिस का जामुनी लिबास है
है बाग़ की रविश
या मेन-गेट के क़रीब
लहलहाती घास है
वो ओस है
या ओस से भरा पड़ा गिलास है !