मंगलवार, 13 जून 2017

बे-शक गधे आम नहीं खाते

गधे हैं, जो आम नहीं खाते ! ये मैं नहीं कहता | ये तो उर्दू के अज़ीम शायर जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहब कहा करते थे जो आमों के ख़ुद एक एक बहुत बड़े रसिया थे | एक बार का वाक़्या है, मिर्ज़ा ग़ालिब, एक साहब के साथ जिन्हें आमों से बहुत चिढ़ थी के साथ गुफ़्तुगू फ़रमा रहे थे तभी उन साहब ने देखा, एक गधा आम की टोकरी के नज़दीक गया, आम को सूंघा और वापस हो लिया | ये देख कर कि ये तो आम हैं कुछ ख़ास नहीं, और इस बात पर उन साहब ने ग़ालिब से कहा, “देखा ग़ालिब साहब ! ‘पता नहीं आपको आम हैं क्यूँ इतने भाते, अरे आम तो गधे तक नहीं खाते’ और एक आप हैं“ ! इस पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने सर हिला कर फ़रमाया, “हाँ हुज़ूर, आप सच ही हैं फ़रमाते, बे-शक गधे आम नहीं खाते” |

हमारे अवध में आम की एक ख़ासम-ख़ास किस्म पायी जाती है जिसे दशहरी आम के नाम से जाना जाता है | इसका नाम दशहरी लखनऊ के काकोरी के पास बसे एक गाँव दसहरी के नाम पर पड़ा | वैसे तो ये आम है लेकिन इसके स्वाद में वो लज़्ज़त है जो इसे ख़ास बना देता है | दशहरी आम की एक ख़ासियत और भी है और वो ये है कि ये कच्चा होने पर भी मीठा लगता है | और यही वजह है इसे फलों का राजा भी कहा जाता है | इस दशहरी आम की वैसे तो तमाम दास्ताने मशहूर हैं लेकिन एक ख़ास बात ये थी, जब कभी भी ये आम किसी को दिया जाता था तो इसमें छेद करके दिया जाता था ताकि कोई दूसरा इसे न ऊगा सके लेकिन मलीहाबाद के एक शख़्स ने नवाबों के माली की मदद से इसका एक पेड़ हासिल कर लिया और फिर इस आम ने पूरी दुनिया को अपना दीवाना बना दिया |

आप इस मिसाल से तो यक़ीनन ही वाक़िफ़ होंगे, "आम के आम और गुठलियों के दाम" | तो ये मिसाल बिलकुल दुरुस्त कही गयी है और इसकी वजह भी एकदम साफ़ है | आम के दरख़्त, पत्तों और इसकी छालों से लेकर आम की गुठलियों के अंदर की बिजली तक इस्तेमाल में आती है | आम के पत्ते हिन्दू मज़हब में पूजा पाठ में, आम की गुठलियों के अंदर की बिजली हाज़मा बुकनू में, इसकी छाल दवा में और इसकी लकड़ी हवन में इस्तेमाल की जाती है |

अगर हम माजी में नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि चाहे अमीर रहा तो या फिर चाहे फ़कीर | हर कोई आम का दीवाना था | मैं इस बात की ठीक से तसदीक़ तो नहीं कर सकता लेकिन इसकी उम्र चार हज़ार बरस के आस-पास की होगी और ये यहीं हिन्दुस्तान उपमहाद्वीप में ही पैदा हुआ | कहते हैं, मुग़ल बादशाह अकबर और शाहजहाँ भी आम के अच्छे ख़ासे शौक़ीन थे और अपने खानसामे से आम से बनी तमाम चीज़ें बनवाते थे, और खानसामे को इनाम और इकराम से भी नवाज़ते थे | चीनी मुसाफ़िर ह्वेनसांग के हिन्दुस्तान आने के बाद ही दुनिया को इस अज़ीम फल के बारे में पता चला |

उर्दू-हिंदवी के पहले शायर मशहूर सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शागिर्द और मौसिकीकार, तबला और सितार जैसे साज़ों को ईजाद करने वाले अमीर ख़ुसरो आम पर लिखते हैं,

बरसा बरस वो देस में आवे, मुँह से मुँह लगा रस पियावे
वा ख़ातिर में ख़र्चे दाम ऐ सखी साजन ना सखी आम 

आम का ज़िक्र हो और मलिहाबाद का ज़िक्र न किया जाए ! ये बिलकुल ऐसा होगा जैसे रोशनी की बात तो कि जाए लेकिन चिराग की बात न की जाए | जब-जब मलिहाबाद का ज़िक्र होगा तो आम के साथ-साथ जोश मलीहाबादी और उनकी आम से मोहब्बत का ज़िक्र होना भी लाज़मीं है | आम की तारीफ में इंक़लाबी शायर जोश मलिहाबाद हिन्दुस्तान छोड़ते वक़्त आमों को याद करते हुए कहते हैं,

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा
आम के बाग़ों में जब बरसात होगी पुरखरोश
मेरी फ़ुरक़त में लहू रोएगी चश्मे मय फ़रामोश
रस की बूंदें जब उडा देंगी गुलिस्तानों के होश
कुन्ज-ए-रंगीं में पुकारेंगी हवाएं ‘जोश जोश’
सुन के मेरा नाम मौसम ग़मज़दा हो जाएगा
एक मह्शर सा गुलिस्तां में बपा हो जाएगा
ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

आख़िर में मैं आपको इक़तिदार जावेद साहब की आम पर लिखी इस ख़ूबसूरत नज़्म के साथ छोड़े जाता हूँ और हाँ, एक बात ग़ौरतलब हो, अगर आप आम नहीं खाते तो एक बार इसे ज़रूर खाएं | यक़ीन मानिये, आप आमों के दीवाने हो जाएंगे |

वो फल है रस-भरा
या फल की रस-भरी असास है
है सब के सामने
या ऐन दरमियान पेड़ के
छुपा हुआ है बीज की तरह
लबों को खोलती हुई
वो आम गुफ़्तुगू है
या लबों को सील करता
इक मुआमला-ए-ख़ास है
मिरी तरह वो शाद-काम है
या ख़ानदान वालों की तरह उदास है
वो आ गया तो हो गई है जामुनी फ़ज़ा
या और है कोई
कि जिस का जामुनी लिबास है
है बाग़ की रविश
या मेन-गेट के क़रीब
लहलहाती घास है
वो ओस है
या ओस से भरा पड़ा गिलास है !

शनिवार, 10 जून 2017

मैसूर का बाघ, जिसका लोहा अंग्रेजों ने भी माना

आपने टीपू सुल्तान की शमशीर, फिराक़दिली और उसकी जांबाज़ी के किस्से तो यक़ीनन ही सुने होंगे लेकिन क्या आपको इस बात का भी इल्म है कि टीपू की तकनीकी में भी अच्छी ख़ासी दिलचस्पी थी | क्या आपने टीपू सुल्तान के मैकेनिकल बाघ के बारे में सुना है ? हो सकता हो सुना हो, लेकिन कोई बात नहीं अगर नहीं सुना | चलिए मैं आपको सीधे विक्टोरीया एंड आल्बर्ट म्यूज़ीयम, लंदन से इस मैकेनिकल बाघ और टीपू से बाघ के तमाम रिश्तों के बारे में रूबरू करवाता हूँ जिसे टीपू ने 1790 में बनवाया था |

देखने में टीपू का मैकेनिकल बाघ बिलकुल असल बाघ जितना ही बड़ा है | ये लकड़ी, पीतल और हांथी दांत से बना हुआ है | इसने एक अंग्रेज सिपाही को अपने चारों पंजों के बीच फंसाकर उसकी गर्दन पर अपने दाँत गड़ाए हुए है | बाघ के बदन के ठीक पहले पंजे के ऊपर एक हैंडल लगा हुआ है जिसे घुमाते ही उस अंग्रेज सिपाही का बायां हाँथ ऊपर नीचे होने लगता है और वह अपने मुँह से निकलने वाली हवा को बाधित करने लगता है जिसकी वजह से ऐसी आवाज़ निकलने लगती है जैसे वो दर्द से कराह रहा हो, मर रहा हो | और बाघ उसे खाने की कोशिश कर रहा हो | जब ऐसा हो रहा होता है ठीक उसी वक़्त बाघ के मुँह से दहाड़ने की आवाज़ें भी निकलने लगती हैं | दरअसल इसके पेट में एक छोटा सा दरवाजा सा लगा जिसे खोलते ही हारमोनियम जैसा हांथी दांत का बना कीबोर्ड नज़र आने लगता है, और इस पर लगे बटन को दबाने से ये हारमोनियम के मानिंद बजने लगता है | टीपू के वक़्त में बाघ के बदन पर बनी धारियां टीपू के वक़्त की अमलदारी, तर्ज़-ए-हकूमत और निज़ाम-ए-हकूमत को बयान करती थीं |

टीपू को बाघ शायद कुछ ज़्यादा ही पसंद थे और शायद यही वजह रही होगी कि उसने अपने तख़्त (सिंघासन) के हर पाए के उपर सोने से बने हुए दहाड़ते बाघ लगवाए थे और उन पर तमाम जवाहरात भी जड़वाए थे | श्रीरंगपट्ट्नम की लूट के वक़्त अंग्रेज सिपाहियों ने टीपू के तख़्त को बड़ी ही बर्बरता के साथ हथौड़ों की मद्दद से तोड़ कर आपस में बांट लिया था हालांकि तख़्त के कुछ ख़ास हिस्से जिसमें बाघ का हीरे जवाहरात से जड़ा मुँह ईस्ट इंडिया कंपनी के वज़ीर के सुपूर्त कर दिया गया था जो आज भी विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में मौज़ूद है | हालांकि ईस्ट इंडिया कंपनी के वज़ीर इस शानदार और बेहद ख़ूबसूरत तख़्त को इंग्लैंड के राजा को तोहफे में देना चाहते थे जो न हो सका |

टीपू के वक़्त चलने वाले सिक्कों तक पर बाघ की धारियां बनी हुईं थीं | सिर्फ़ यहीं नहीं, टीपू की शमशीर की मूठ और उसकी फ्लिंटलॉक बंदूक के कुंदे पर भी बाघ बना हुआ है | पहली एंग्लो-मैसूर जंग में टीपू की फ़ौज ने अंग्रेजों के ऊपर राकेट से इतना जबरदस्त हमला किया था कि अंग्रेज सिपाहियों के छक्के छूट गए थे और वो समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर ये कौन सा हथियार है | इस जंग में अंग्रेजों को बहुत ज़बरदस्त जान माल का नुकसान हुआ था | टीपू को शिकस्त देने के बाद बचे हुए राकेट वो अपने साथ इंग्लैंड ले गए जहाँ उन पर शोध किया गया और यहाँ से दुनिया में राकेट एंड मिसाइल तकनीक की शुरवात हुई |

टीपू की फ़ौज़ में कुछ छोटी तोपें भी थीं जो एक बाघ की शक्ल में थीं जिसे रॉयल आर्टिलरी म्यूजियम वूलविच में आज भी देखा जा सकता है | इसमें बाघ अपने पिछले पैरों पर बैठ हुआ है और आगे के दोनों पैर सीधे हैं और गर्दन उपर की तरफ है | इसे जब चलाते थे तो इसके मुँह से बारूद का गोला निकल कर दुश्मन के उपर गिरता था | ये तोपें आकार में एक औसत बाघ के बराबर ही थीं चुनांचे इन्हें एक जगह से दूसरी जगह बहुत आसानी से ले जाया जा सकता था | इसको चलाने वाले सिपाही एक ख़ास तरह ही पोशाक़ पहनते थे जिस पर बाघ की धारियाँ बनी रहतीं थीं |

टीपू ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का जमकर मुक़ाबला किया और शुरू की तीन जंगों में अंग्रेजों को करारी शिक़स्त दी हालाँकि 1799 की चौथी जंग में टीपू की हार हुई और वह मैदान-ए-जंग में लड़ते हुए शहीद हुआ | गौरतलब हो कि टीपू हिन्दुस्तान की आज़ादी में मैदान-ए-जंग में लड़ते हुए शहीद होने वाला हिन्दुस्तान का पहला बादशाह था | इस हार के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज़ ने शहर में जमकर लूटपाट की | इसके बाद कर्नल आर्तर वेल्ज़्ली ने इस वक़ीये की जाँच करवाई और दोषियों को फाँसी और कोड़ों की सजा दिलवाई | जंग के बाद टीपू की तमाम दौलत अंग्रेज सिपाहियों के बीच उनके ओहदे के हिसाब से तकसीम की गयी लेकिन टीपू का मैकेनिकल बाघ लंदन भेज दिया गया | जहाँ इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के नए म्यूजियम में लोगो को दिखाया गया और इसे लोगों ने ख़ूब पसंद किया | इस म्यूजियम के बंद होने के बाद इसे साउथ केंसिंग्टन म्यूजियम भेज दिया गया और बाद में इसका नाम बदलकर विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम कर दिया गया | और तब से लेकर ये आम लोगों के देखने लिए म्यूजियम में आज भी मौज़ूद है |

अंग्रेजों ने भले ही टीपू को हरा दिया हो लेकिन अपने लिखे दस्तावेजों में वो टीपू को आज भी 'टाइगर ऑफ़ मैसूर' कहकर ही खिताब करते हैं | और ये भी मानते हैं कि टीपू हिन्दुस्तान का एक जांबाज़ जंजू होने के साथ-साथ एक तरक्की पसंद बादशाह भी था |
कोहिनूर जो कभी नहीं बिका

कोहिनूर ! इसे सुनते ही सबसे पहले हमारे ज़हन में क्या आता है ? एक बेश्कीमती चमकदार हीरा जिसे अंग्रेज उठा ले गए थे, यहीं न ! वैसे ये सही भी है लेकिन आज मैं मेरी नज़रों से आपको सीधे 'टावर ऑफ़ लंदन' म्यूजियम से इसके बार में बताता हूँ जहाँ ये हीरा रक्खा हुआ है |

मैंने जब इस हीरे को टावर ऑफ़ लंदन म्यूजियम में देखा तो मुझे दो बातें समझ में आयीं, एक, इस पत्थर के टुकड़े के लिए माजी में इतना कत्लेआम ! और दूसरा, अगर ये हमारे यानी मुल्क के पास होता तो कितना अच्छा होता | खैर… ज़ाती तौर पर मुझे ये हीरा कुछ ख़ास पसंद नहीं आया और इसके तीन कारण हो सकते हैं, पहला टावर ऑफ़ लंदन म्यूजियम में रक्खा हीरा असल नहीं बल्कि उसकी नक़ल है, दूसरा, अब हीरा अपने असली वज़ूद में नहीं है और तीसरा शायद किसी ने सही ही कहा है हीरे की परख या तो राजा जानता है या फिर जौहरी और में उन दोनों में से एक भी नहीं हूँ |

वैसे तो इसके बारे में कई दास्ताने मशहूर हैं लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों के हिसाब से यह हीरा गोलकुंडा की खान से निकाला गया था, जोकि दुनिया की सबसे पुरानी हीरों की खान है | कुछ तथ्यों के हिसाब से ये हीरा गयासुद्दीन बलबन के बेटे उलुघ खान ने साल 1323 में इसे वारांगल के राजा को शिकस्त देकर हांसिल किया था और फिर वहाँ से यह हीरा दिल्ली सल्तनत के तमाम शासकों के हांथो से गुजरता हुआ मुगल सम्राट बाबर के हाथ साल 1526 में लगा |

बाबर ने बाबरनामा में लिखा है, कि यह हीरा साल 1294 में मालवा के एक राजा का था | बाबर ने इसकी कीमत कुछ ऐसी आंकी थी कि अगर इसे उस वक़्त बेच दिया जाता तो इससे पूरी दुनिया का दो दिनों तक पेट भरा जा सकता था | बाबरनामा के मुताबिक, अलाउद्दीन खिलजी ने ये हीरा जबरन मालवा के राजा से छीना था | उसके बाद यह दिल्ली सल्तनत के शासकों के द्वारा आगे बढ़ाया गया और आख़िर में साल 1526 में बाबर की जीत पर उसे हांसिल हुआ | उस वक़्त तक ये सिर्फ एक बेशकीमती हीरा था यानी इसका कोई नाम नहीं था और साल 1739 तक ये हीरा मुगलों के पास ही रहा | ये बात भी गौर तालाब हो कि शाहजहां ने इस हीरे को अपने मशहूर मयूर सिंहासन (तख्ते-ताउस) में भी जड़वाया था जिसे नादिर शाह लूट कर ईरान ले गया जिसके बाद तख्ते-ताउस का क्या हुआ कोई पता नहीं |

नादिर शाह के लूटने तक इस हीरे का कोई नाम नहीं था | इसके नाम के पीछे भी एक बड़ी ही दिलचप दास्ताँ हैं | दरअसल हुआ कुछ हूँ था, नादिर शाह के हमले के वक़्त यानी साल 1739 में दिल्ली पर शाह आलम का शासन था | नादिर शाह को कहीं से पता चला कि शाह आलम के पास एक बेशकीमती हीरा है जिसे वह हमेशा अपनी पगड़ी में छुपाकर रखता है चुंनाचे उसने शाह आलम को एक दावतनामा भेज दिया | शाह आलम ने दावतनामा कबूल भी कर लिया और आया भी लेकिन जब दावत ख़त्म हुई तो वह शाह आलम की तरफ बढ़ा और उसकी पगड़ी उतारने की कोशिश करने लगा तो शाह आलम ने उसे रोक दिया और कहा, “ये क्या हिमाक़त है ?” नादिर शाह ने कहा, “ये हिमाक़त नहीं बल्कि हम खुरासानियों का रिवाज़ है | हमारे खुरासान में रिवाज़ है कि जब दो दोस्त दावत पर मिलते हैं तो अपनी-अपनी पगड़ी बदलते हैं और मैं वही करने जा रहा था” | इस बात पर शाह आलम ने कहा, “मैं नहीं मानता इस रिवाज़ को | मैं अपनी पगड़ी नहीं बदल सकता | और इसी बात को लेकर दोनों में खींचा-तानी शुरू हो गयी | इसी बीच शाह आलम की पगड़ी से निकल कर हीरा फर्श पर गिर गया जिसे देखते ही नादिर शाह के मुँह से यकायक निकला ‘कूह-ए-नूर’ जिसका फ़ारसी में मानी है 'रौशनी का पहाड़' और उस रोज़ के बाद इसका नाम कूह-ए-नूर पड़ गया जो बाद में कोहिनूर हो गया | इस वाक़िए के बाद नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला बोल दिया | इस हमले में शाह आलम की जबरदस्त हार हुयी | नादिर शाह ने जमकर लूटपाट की और बहुत सारी दौलत अपने कब्ज़े में ले ली जिसमें कोहिनूर और शाहजहाँ का बनवाया हुआ मयूर सिंघासन भी शामिल था |

मैं इस बात की तस्दीक़ तो नहीं कर सकता लेकिन नादिर शाह की बेगम ने जब कोहिनूर को देखा तो उसने कहा, “अगर कोई ताकतवर आदमीं, पाँच पत्थरों को चारों दिशाओं में ऊपर की तरफ पूरी ताकत के साथ फेंके, तो उनके बीच की खाली जगह यदि हीरे जवाहरात से ही भरी जाये तो इसकी कीमत कोहिनार के बराबर होगी हालांकि कोहिनूर की कभी ख़रीद फरोख़्त नहीं हुई | इसे एक ने दूसरे से लड़कर ही हांसिल किया और जिसने भी इसे हांसिल किया उसके साम्राज्य का अंत हो गया |

साल 1747 में, नादिर शाह की हत्या के बाद, कोहिनूर अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली के हाथों में पहुँचा | साल 1830 में अफगानिस्तान के शासक शूजा शाह ने पंजाब के महाराजा रण्जीत सिंह को यह हीरा भेंट किया और इसके एवज़ में रण्जीत सिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को अपनी टुकड़ियां अफगानिस्तान भेज कर अफगान गद्दी शाह शूजा को वापस दिलाने के लिये तैयार किया |
कुछ उपलब्ध दस्तावेज़ों से पता चलता है कि लॉर्ड डल्हौज़ी ने इसे जबरन महाराजा रण्जीत सिंह के साथ हुई लाहौर संधि में शामिल करवाया हालांकि इस बात की कई ब्रिटिश आलोचकों ने मज़म्मत भी की और कहा, ‘मुनासिब होता अगर ये महारानी को सीधे तोहफे में दिया जाता बजाय छीने जाने के’ हालांकि साल 1850 में डल्हौज़ी ने महाराजा रण्जीत सिंह के उत्तराधिकारी दिलीप सिंह द्वारा महारानी विक्टोरिया को तोहफे में दिये जाने के इंतज़ाम किये और तेरह साल की उम्र में दिलीप सिंह को इंग्लैंड ले जाकर महारानी विक्टोरिया को तोहफे में दिलवाया |

साल 1852 में महारानी विक्टोरिया के पति प्रिंस अल्बर्ट ने कोहिनूर को तरशवाकर महारानी के ताज में अन्य दो हजार हीरों सहित जड़वा दिया हालांकि महारानी विक्टोरिया इसे पहनने से पहले ही मर गयीं | महारानी अलेक्जेंड्रिया इसे इस्तेमाल करने वाली पहली महारानी थीं | इनके बाद महारानी मैरी रहीं | साल 1936 में इसे महारानी एलिज़ाबेथ के ताज की शोभा बनाया गया और फिर बाद में साल 2002 में इसे उनके ताबूत के ऊपर सजाया गया |

वैसे तो कोहिनूर हिन्दुस्तान में पाया गया लेकिन हिन्दुस्तान के अलावा पकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान भी इस पर अपना दावा जताते आये हैं लेकिन इंग्लैंड ने इसे वापस करने से साफ़ इंकार कर दिया है | यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज ट्रीटी के मुताबिक अगर किसी मुल्क की कोई धरोहर किसी दूसरे मुल्क ले जाई गयी है तो उसे वापस लिया जा सकता है लेकिन कोहिनूर यूनेस्को बनने से पहले ही इंग्लैंड ले जाय गया था चुनांचे ये यूनेस्को के दायरे से बाहर हो जाता है |

अभी के एक हालिया वाक़िये में हिन्दुस्तान के सॉलिसीटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कोहिनूर को न तो जबरदस्ती छीना गया था और न हीं चुराया गया था | ये हीरा साल 1849 में पंजाब के शासक द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को तोहफे में दिया था लेकिन मुल्क के संस्कृति मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि कोहिनूर को दोस्ताना तरीके से भारत लाने के सभी मुमकिन प्रयास किए जाते रहेंगे और जो कुछ सॉलिसीटर जनरल ने कहा वो सरकार की राय से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता | बयान के मुताबिक़ अदालत को इस बारे में अभी आधिकारिक ब्योरा दिया जाना बाक़ी है | सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एक एनजीओ की याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसमें कहा गया है कि अदालत कोहिनूर को वापस भारत लाने के लिए सरकार को निर्देश दे |
क्या क़ानून और इंसाफ़ लोगों के गुस्से से तय होगा

निर्भया ! उसे ये नया नाम क्यों दिया गया ? उसे इस नाम से क्यों बुलाया जा रहा है ? उसका असली नाम क्यों नहीं लिया जा रहा है ? ये सिर्फ कुछ सवाल हैं | उसने तो कोई अपराध नहीं किया था | हैवानियत तो इंसान की शक्ल में छुपे उन पांच दरिंदो ने की थी तो फिर निर्भया को उसके असली नाम से क्यों नहीं बुलाया जा रहा है ? हालांकि बिलकिस बानो के मामले में ऐसा नहीं हुआ | उसे उसके नाम से ही बुलाया जा रहा है जोकि मेरे समझ से बुलाया जाना भी चाहिए क्योंकि इज़्ज़त उसकी नहीं उन दरिंदों की लुटी है जिन्होंने उसके साथ हैवानियत की |

मुझे एक बात बिलकुल भी समझ में नहीं आती कि जब भी किसी बच्ची, लड़की या फिर महिला के साथ बलात्कार होता है तो हमारा समाज जिसमें मैं भी शामिल हूँ क्यों कहता है कि एक या कई दरिंदो ने मिलकर उसकी इज़्ज़त लूट ली | तो सवाल ये है कि क्या उसकी इज़्ज़त उसकी वैजाइना में होती है ? जबकि दरिंदगी इंसानी भेष में मौजूद दरिंदे करते हैं | इन दरिंदो को जानवर इसलिए नहीं कह रहा हूँ क्योंकि जानवर कहना जानवरों की बेज़्ज़ती होगी |

हम इन दरिंदो की हैवानियत के लिए इनकी परवरिश को ज़िम्मेदार मानने लगते हैं जिसमें कुछ हद तक सच्चाई भी होती होगी | लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि कोई माँ-बाप अपने बच्चों को इस तरह की हरकतों के लिए कभी नहीं उकसाता होगा या करने के लिए कहता होगा फिर चाहे उन माँ-बाप की परवरिश कैसे भी माहौल में क्यों न हुई हो | हाँ, परवरिश और आस-पास का माहौल इनकी दरिंदगी में इज़ाफ़ा ज़रूर करता है | दरअसल इस तरह की हैवानियत करने वाले लोगों के रवैये में ही दरिंदगी होती है जिसे बदला नहीं जा सकता | तो फिर एक सवाल पैदा होता है कि कैसे इन दरिंदों को फिर से इंसान बनाया जाए या फिर कैसे इनका रवैया बदला जाए ? दरअसल इस किस्म के लोग कुदरती तौर पर ही दरिंदे होते हैं | ये उस कैंसर की तरह होते हैं जिनका कोई इलाज़ नहीं होता | इनका तो सिर्फ और सिर्फ एक ही इलाज़ होता है कि इन्हें वक़्त रहते पहचानकर इन्हें काट कर फेंक दिया जाए हालांकि इन्हें अमूमन किसी हैवानियत से भरी वारदात के बाद ही पहचाना जा सकता है उससे पहले नहीं | लेकिन कम से कम हम जब भी इन्हें पहचान पाएं काट कर फेंक दें जिससे इनकी परवरिश और इनके आस-पास के माहौल पर इसका कुछ असर ज़रूर पड़े | पर… एक मिनट रुकिए, मेरा काट कर फेंक देने से ये मतलब नहीं है कि हम जनता जनार्दन हाँथ में तलवार लेकर इन्हें काटने निकल पड़े | दरअसल हमें अपनी विधायिका पर इतना दबाव बढ़ा देना चाहिए कि वो ऐसे सख़्त से सख़्त क़ानून बनाये और सिर्फ बनाये ही नहीं बल्कि ये भी पक्का करे कि पुलिस और अदालतें अपना काम ठीक से करें जिससे ऐसे हर एक मामले में एक ही तरह ही सजा हो | और यकीनन वो सजा न्यूनतम मौत ही होनी चाहिए | इसके साथ-साथ हम अपने समाज की सही परवरिश पर भी ध्यान दें लेकिन उन फ़िल्मी हीरो की तरह नहीं जो पब्लिक में तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन अपनी फिल्मों में लड़कियों को एक वस्तु की तरह इस्तेमाल करते हैं |

निर्भया को तो जनता के भारी दबाव के चलते उसके साथ हुई हैवानियत का इंसाफ़ मिल गया लेकिन क्या बिलकिस बानो को भी उतना ही इंसाफ़ मिला जितना निर्भया को ? शायद नहीं | निर्भया के मामले में छह लोग शामिल थे जिनमें से एक ने ख़ुद को मार लिया और चार को मौत की सजा सुनाई गयी और एक नबालिग को 3 साल की कैद के बाद बरी कर दिया गया जिसे नहीं होना चाहिए था लेकिन बिलकिस बानो के मामले में 11 दरिंदों को सिर्फ उम्र कैद ? जबकि 2 डॉक्टर और 6 पुलिसवालों को महज़ 20 हजार रुपए और कुछ सालों की जेल के बाद रिहा कर दिया गया | गुजरात दंगों के दौरान 19 साल की बिलकिस बानो का बलात्कार तो किया ही गया जब वो 5 महीने की गर्भवती थी और साथ ही बिलकिस बानो के परिवार के 14 लोगों की हत्या कर दी गयी | तो फिर से एक सवाल, इंसाफ़ में ये दोहरा रवैया क्यों ? एक ही गुनाह की अलग-अलग सज़ा क्यों ? शायद हमने बिलकिस बानो वाले मामले में वो सब नहीं किया जो निर्भया और जेसिका लाल के मामले में किया | लेकिन हमें इन मामलों में वो सब क्यों करना चाहिए ? क़ानून और इंसाफ़ अपना काम ख़ुद क्यों नहीं करता ? वैसे तो मुझे देश के क़ानून पर भरोसा है लेकिन जब भी मैं ये बात कहता हूँ मेरी जबान ख़ुद बख़ुद लड़खड़ाने लगती है और ये एक सवाल है ? क्या मुल्क में क़ानून और इंसाफ़ लोगों के गुस्से से तय होगा या फिर क़ानून और इंसाफ़ अपने आप होते हुए भी दिखेगा ?

मुल्क में रोज़ न जाने कितने निर्भया और बिलकिस बानो जैसे मामले होते हैं जो पता तक नहीं चल पाते और जो पता चल भी पाते हैं उनमें पूरा इंसाफ़ नहीं हो पता | और अगर आप गरीब हैं, मज़लूम हैं तब तो कानून और इंसाफ़ आपके लिए है ही नहीं | और ये एक ज़हीन मुल्क और ज़म्हूरियत के तौर पर हमारी शिकस्त है | माफ़ कीजियेगा लेकिन जिस मुल्क में मंत्री से लेकर संतरी तक घूस लेते हों उस मुल्क के क़ानून पर सिर्फ धन्ना सेठों को ही भरोसा हो सकता है आम आदमीं को नहीं | हालांकि इसके बावज़ूद भी हमें ज़म्हूरियत और मुल्क के कानून पर अपना भरोसा बनाये रखना चाहिए क्योंकि ज़म्हूरियत में जन आंदोलन ही विधायिका से अपनी बात मनवाने का एक मात्र रास्ता हैं |

मर जवान मर किसान

मर जवान मर किसान ! चौंकिए मत अब से यही नया नारा है, अच्छा है शास्त्री जी हमारे बीच ज़िंदा नहीं हैं वार्ना मुझ पर लानत भेजते | एक तरफ देश के जवान कूटे जा रहे हैं जबकि दूसरी तरफ देश के किसानों को अपना मल मूत्र तक पीना पड़ रहा है | ऐसे में मुझे उन लोगों की याद पटक-पटक कर मार रही है जो देश के किसानों की बातें करते-करते संसद पहुँच गए और ख़ामोश हो गए | मुझे तो याद नहीं लेकिन अगर आपको याद हो तो ज़रूर बताना, मैंने आज तक तथाकथित जीडीपी का ढ़ोल पीटने वाले लोगों को कभी अपना मल मूत्र खाते नहीं देखा, हाँ ! बड़े-बड़े होटलों में ज़ाम छलकाते ज़रूर देखा है जबकि जीडीपी में सबसे बड़ा हिस्सा देने वाला देश का दम तोड़ता किसान है अतिवादी उपाय करने को मज़बूर है | 

चाणक्य ने सही ही कहा था, सत्ता का चरित्र एक सामान होता है फिर चाहे सत्ता फलाने की हो या ढ़िमकाने की | १४ मार्च को तमिलनाडु से आये किसान अपनी बात सरकार तक पहुँचाने के लिए तरह-तरह के उपाय कर रहे हैं, कुछ उपाय अतिवादी भी हो सकते हैं लेकिन ये सोचने वाली बात है कि अतिवाद की ज़रुरत क्यों पड़ रही है ? सरकार उनके मन की बात क्यों नहीं सुन रही है ? इसका मतलब एकदम साफ़ है | सरकार जान बूझकर गूंगी और बहरी तो बने ही रहना चाहती है और साथ में हमारे तथाकथित प्रधान सेवक तो एक और कदम आगे हैं | वो तो केवल अपने मन की बात ही करते हैं, किसी दूसरे के मन की बात से उन्हें कोई सरोकार नहीं | उन्हें फोटो सेशन और बक-बक से फुर्सत मिले तब तो ग़ैर ज़रूरी लोगों की ग़ैर ज़रूरी बातें सुने | दरअसल ये जनता जनार्दन की ही गलती है जिसका ख़ामियाज़ा इन बेचारे किसानों को भुगतना पड़ रहा है | हमने सरकार में बैठे लोगों को इतना ऊँचा उठा दिया है जिसके वो कहीं से भी लायक नहीं हैं जबकि असल बात ये है ये सब जनता के सेवक हैं, हमारे सर्विस प्रोवाइडर हैं और इनके साथ वही सलूक होना चाहिए जैसा हम किसी सर्विस प्रोवाइडर के साथ करते हैं, सर्विस न मिलने पर |

कुछ तथाकथित नेता-नेती जंतर मंतर ज़रूर पहुँचे हैं लेकिन किसानों की बात सुनने नहीं बल्कि सेल्फी नामक राष्ट्रीय रोग का टीकाकरण करवाने और ये बताने कि अगर राजनितिक रोटी सेंकी जाए तो कुछ टुकड़े उन्हें भी मिल जाए | किसानों की समस्याएं आज अचानक से पैदा नहीं हुईं हैं बल्कि ये तो बरसों से बदस्तूर चलती चली आ रही हैं और इसकी ज़िम्मेदार हर वो सरकारें रहीं हैं जो सत्ता में रहीं हैं | पहले तो विपक्ष हुआ करता था जो किसानों और मज़दूरों के कुछ मुद्दे उठाया करता था लेकिन अब तो वो भी नदारद है | मीडिया अब जनता के सरोकार को उठाने के बजाय सरकारों की दलाली करने में मशगूल है | अब ऐसे हालात में बेचारे किसानों को अपनी बात कहने के लिए मल मूत्र नहीं खाना पड़ेगा तो और क्या करना पड़ेगा |

जंतर मंतर पर किसान हर वो कोशिश कर रहे हैं जिससे उनकी बात प्रधान सेवक जी के बंद कानो तक पहुँचे | इसी वज़ह से, कभी वो मुँह में चूहा दबा लेते हैं तो कभी सांप खाने लगते हैं, कभी ज़मीन पर ही खाना परोसकर खाने लगते हैं तो कभी नंगे होकर तपती ज़मीन पर लोटने लगते हैं | सिर्फ यही नहीं, वो अपने मरे हुए किसान साथियों की खोपड़ियां पहन कर बैठ जाते हैं और पागलों की तरह चिल्लाने लगते हैं लेकिन प्रधान सेवक जी पता नहीं कौन सी सेवा में मशरूफ़ हैं कि उन्हें इन किसानों से मिलने में ऐतराज़ है | इसलिए मुझे तो शक़ होता है कि वो सचमुच के प्रधान सेवक हैं या उन्होंने जुमले में ही कह दिया था कि मैं देश का प्रधान सेवक हूँ | किसी ने एकदम दुरुस्त ही कहा है, “नंग बड़ा परमेश्वर से” लेकिन यहाँ पर नंग कौन है मुझे बताने की कोई ज़रुरत नहीं हैं क्योंकि आप समझदार हैं |

मेरे तो कान पाक चुके हैं, तीन साल हो गए मेक इन इंडिया सुनते-सुनते और अब हाल ये है कि मवाद तक निकलने लगा है | किसान जो देश के लिए मेक इन इंडिया के सबसे बड़े नुमाइंदे हैं उन्हें भरपेट खाना पानी तक नहीं मिल पा रहा है, क़र्ज़ के बोझ से आत्महत्या तक कर रहे हैं लेकिन जब वो अपनी समस्या कहने दिल्ली आते हैं तो उन्हें नौटंकी-बाज़ और विरोधी दलों की साज़िश बताकर ख़ारिज़ कर दिया जाता है | सरकार कुछ इस अंदाज़ में पेश आ रही है कि तुम लोगों को जो करना हो कर लो तुम्हारी एक नहीं सुनी जायेगी | इन मुट्ठी भर किसानों का आंदोलन मुझे जनलोकपाल आंदोलन की याद दिलाता है जिसे उस वक़्त की तात्कालिक सरकार कुछ इसी अंदाज़ में ख़ारिज़ किया करती थी और जिसका नतीजा ये हुआ वो गए और ये आये | देश में अलगाववाद और नक्सलवाद कुछ इसी तरह की सरकारी उदासीनता के जीते जागते उदहारण हैं इसलिए प्रधान सेवक जी अभी भी देर नहीं हुई है, आप कुछ वक़्त निकालकर इनसे मिलें और इनकी बातें ग़ौर से सुने, इनकी हर संभव मद्दद करें वार्ना कहीं ऐसा ना हो जाए कि इनका सब्र टूट जाए और यकीन मानिये जिस दिन ऐसा हुए तुम क्या और तुम्हारी बिसात क्या | चलते-चलते एक बात और, "दुनिया में सबसे ताकतवर आदमीं वो होता है जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता" बाकी आप होशियार हैं समझदार हैं इसलिए ख़बरदार कर रहा हूँ | 

चिंगारी जो शोला बन गयी - मंगल पाण्डे

मंगल पाण्डे | ये सिर्फ एक नाम नहीं है बल्कि हिंदुस्तान के एक मुकम्मल मुल्क बनने की असल अवधारणा इसी नाम के साथ शुरू होती है क्योंकि इसके पहले हिंदुस्तान एक मुल्क के तौर पर स्थापित नहीं था | वो मंगल पाण्डे ही थे जिन्होंने टुकड़ों में बटे हिंदुस्तान को एक मुकम्मल मुल्क बनने का हौसला दिया | मंगल पाण्डे की शुरू की हुई क्रांति भले ही बहुत छोटी रही हो लेकिन इसने बरतानिया हुक़ूमत की नींव को हिलाकर रख दिया | अंग्रेज इस क्रांति से इतना डर गए थे कि उन्होंने हिन्दुस्तान में चौंतीस हजार सात सौ पैंतीस अंग्रेजी कानून देश की जनता पर लागू कर दिए ताकि मंगल पाण्डे की तरह कोई और सैनिक दोबारा ऐसी बगावत न कर सके | किसी ने क्या ख़ूब कहा है, क़तरा न हो तो बहर न आए वजूद में, पानी की एक बूँद समुंदर से कम नहीं |

मंगल पाण्डे एक कट्टर ब्राम्हण थे और बगावत का बीज उनके अंदर शुरू से नहीं था | दरअसल हुआ कुछ यूँ था, 31 जनवरी 1857 की बात है, मंगल पाण्डे अपने लोटे में पानी भरकर खाना खाने के लिए रसोई घर की घोर जा रहे थे और ठीक उसी वक़्त रामटहल नाम का एक जमादार जो भंगी जाति का था वहाँ से गुजर रहा था, उसे जोरों के प्यास लगी थी | उसने मंगल पाण्डे से कहा, बहुत प्यास लगी है, मुझे अपने लोटे से थोड़ा सा पानी पिला दीजिए | उस समय जातिय भेदभाव अपने उरूज पर था | मंगल पाण्डे ने उसे दुत्कार दिया था इसलिए वो झुझलाते हुए बोला, आपको अपनी जाति का बहुत गुमान है ! देखते हैं, अब आप कैसे उसे बचा पाते हैं ? जब अंग्रेज आपको गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूस दांतों से नोचने के लिए देंगे तब आप क्या करेंगे ? रामटहल उसी दमदम छावनी में खलासी जमादार था जहाँ अंग्रेजी फौज के लिए कारतूस बनाये जाते थे इसलिए उसकी बात न मानने का कोई वाजिब कारण ही नहीं था | उस दिन मंगल पाण्डे को यह बात समझ में आ गयी कि अंग्रेज हमारा धर्मभ्रष्ट करना चाहते हैं और फिर जो हुआ वो आप सबको पता ही है |

मंगल पाण्डे की क्रांति ने न केवल आज़ादी का इतिहास शुरू किया बल्कि हिंदुस्तान के भूगोल का ख़ाका भी खींच दिया था | ग़ौरतलब हो कि आज ही के रोज़ साठ बरस पहले यानी 8 अप्रैल 1857 को बरतानिया हुक़ूमत ने इस जाबांज़ जंजू को फांसी पर लटका दिया | लेकिन बरतानियों को शायद इस बात का इल्म नहीं रहा कि क्रांति एक बार शुरू हो जाए तो फिर मंज़िल पर पहुँच कर ही दम भरती है क्योंकि क्रांति और ख़्याल कभी नहीं मरते | वो किसी एक शख्श के मरने पर पर ख़त्म नहीं होती उल्टा ऐसे प्रतीक क्रांति की में आग में ईंधन का काम करते हैं और ठीक यही मंगल पाण्डे की शहादत के साथ भी हुआ | क्रांति दबने के बजाये पूरे हिंदुस्तान में आग की तरह फ़ैल गयी | लोग जगह-जगह विद्रोह करने लगे, पूरा हिंदुस्तान आज़ादी की मांग करने लगा और इस क्रांति के नब्बे साल बाद आख़िरकार हिंदुस्तान एक आज़ाद मुल्क के तौर पर वज़ूद में आया |

अंग्रेजों ने मंगल पाण्डे की टुकड़ी के प्रमुख ईश्वरी प्रसाद को भी फाँसी चढ़ा दिया था क्योंकि उन्होंने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया था | और सिर्फ यही नहीं, इस क्रांति के निशान मिटाने के लिए चौंतीसवीं इंफ़ैंट्री को ही भंग कर दिया गया जिसमें मंगल पाण्डे एक मामूली से सिपाही थे | शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने मंगल पांडेय की शहादत के रोज़ ही सेंट्रल असेंबली में बम फेंका था और इस दिन को ख़ास तौर उन्हें खिराज-ए-अकीदत देने के लिए चुना गया था जिसके बाद पूरे मुल्क में ऐसी आंधी चली की बरतानिया हुकूमत की नीवें हिल गई |

गुरुवार, 16 मार्च 2017



गंगा-जमुनी होली


पूरे देश में होली सिर्फ रंगों का त्यौहार है लेकिन लखनऊ की गंगा-जमुनी होली इससे कहीं ज्यादा है | दरअसल लखनऊ की होली गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक ज़िंदा मिशाल है जिसे हर जाति और मज़हब के लोग मिलकर एक साथ खेलते हैं | नवाब सआदत अली खान से लेकर या मौशिकी पर जान छिडकने वाले अवध के आख़िरी नवाब वाजिद आली शाह तक सब जमकर होली खेला करते थे | शहर का गरीब से गरीब शख्स भी नवाबों के ऊपर रंग फेंक सकता था | नवाबों के दौर में होली का रंग देखते ही बनता था | लखनऊ की इसी गंगा-जमुनी होली को देखकर मेरा जी भी एक शेर कहने को मज़बूर हुआ, मुलाहिजा फरमाएं, “अस्बाब-ए-होली-ए-रंग में ख़ूबाँ ऐसे नज़र आते हैं, किसने-किसको कौन-किसमें रंगा नज़र नहीं आता” |

ख़ुदा-ए-सुखन मोहम्मद तकी उर्फ मीर तकी "मीर" जब दिल्ली से बेजार होकर लखनऊ आये तो वो भी इस शहर की गंगा-जमुनी होली के दीवाने हो गए | उन्होंने तब के नवाब आसफुद्दौला को रंगों में सराबोर होली खेलते देखा तो उनसे रहा न गया और उन्होंने नवाब आसफुद्दौला की होली पर लिखा, "होली खेले आसफुद्दौला वजीर, रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर…." |

लखनऊ स्कूल के बड़े उस्तादों में से एक हैदर अली ‘आतिश’ लखनवी साहब भी लखनऊ शहर की होली से मुतासिर हुए बगैर नहीं रह सके और शेर कहते हैं, “होली शहीद-ए-नाज के खूँ से भी खेलिए, रंग इसमें है गुलाल का बू है अबीर की” | लखनऊ के इतिहास में जो शख्स होली के सबसे बड़े दीवाने के तौर पर मशहूर है उसका नाम वाजिद अली शाह के सिवाय भला और क्या हो सकता है और यही नहीं वो शहर की गंगा-जमुनी तहजीब के निगरान भी थे इसीलिए उनका शहर उन्हें जान-ए-आलम कहकर बुलाता था | क़ौमी यकजहती की निशानी के तौर पर लाफ़ानी हो चुके लखनऊ शहर के इस बांके नवाब ने बेशुमार लोक-गीत और होली-गीत लिखे, उनमें से एक से तो आप यक़ीनन ही रूबरू होंगें जिसे फ़िल्म सरदारी बेगम में आशा भोंसले जी ने अपनी आवाज़ से सजाया, “मोरे कान्हा जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूंगी डट के, उनके पीछे मैं चुपके से जा के, ये गुलाल अपने तन से लगा के, रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के, अबके होली मैं खेलूंगी डट के….


जानकार बताते हैं, नवाबों के वक़्त हर फिरके के लोग होली मनाते थे, क्या हिन्दू और क्या मुसलमां, क्या राजा और क्या रंक | सिर्फ़ यही नहीं होली की छाप आज भी मुसलमानों के त्योहारों पर भी साफ़ दिखाई देती है | लखनऊ के मुसलमान होली में तो होली खेलते ही हैं बल्कि मोहर्रम में भी होली खेलते हैं और इसके उलट कई हिन्दू भी मोहर्रम में पूरी सिद्दत से शरीक़ होते हैं | इस तरह का नज़ारा आज भी पुराने लखनऊ में आसानी से देखा जा सकता हैं | ईरानी नव वर्ष नौरोज जो कि होली के ही आस-पास ही पड़ता है, वैसे तो पूरे देश में और देश के बाहर भी मनाया जाता है लेकिन सिर्फ़ लखनऊ में नौरोज के दिन होली की तर्ज पर रंग खेला जाता है | लखनऊ के दिल कहे जाने वाले चौक से होली की बारात नवाबों के वक़्त से आज भी बदस्तूर जारी है जिसमें हर फिरके के लोग शामिल होते हैं | उस दौर में हिन्दू मुसलमां दोनों इकठ्ठे मिलकर होली और मोहर्रम मनाया करते थे और इस बात का पता उस दौर की शायरी से साफ़-साफ़ ज़ाहिर होता है | जहाँ कई हिन्दू शायरों के लिखे मर्सिये आज भी मोहर्रम की मजलिसों की जान हैं वहीं दूसरी तरफ लखनऊ के कई मुस्लिम शायरों ने भी लखनऊ की होली का बयान अपनी शायरी में खूब किया है | महजूर लखनवी साहब लिखते हैं, “गुलज़ार खिले हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो, कपड़ों पर रंग के छीटों से खुशरंग अजब गुलकरी हो…” | 

एक बार का वाकया है, होली और मोहर्रम एक ही रोज़ पड़ गए इसलिए लखनऊ के हिंदुओं ने सामूहिक रूप से फैसला लिया कि वो इस बार होली नहीं खेलेंगे | ये बात जब वाज़िद अली शाह को पता चली तो उन्होंने ऐलान करवाया कि जब हिन्दू भाई मोहर्रम के लिए अपनी दिल-ओ-अज़ीज़ होली को न खेलने का ऐलान कर सकते हैं तो हमारा भी फ़र्ज़ बनता है कि इस बार उनकी होली हर बार से भी ज्यादा हसीन हो | उस दिन होली और मोहर्रम दोनों अलग-अलग वक़्त पर मनाये गए और ख़ुद वाज़िद अली शाह समेत हर फिरके के लोगों ने होली में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया |

होली के दिन नवाब वाज़िद अली शाह पूरी रियाया में मिठाई और ठंडाई बंटवाते थे और हर आम-ओ-ख़ास के साथ जमकर होली खेलते थे | उस दौर की होली गंगा-जमुनी तहज़ीब का एक अटूट हिस्सा थी जो आपसी भाई चारा और मोहब्बत का पैग़ाम थी | जान-ए-आलम का ये शहर आज भी अपनी गंगा-जमुनी विरासत को संजोये हुए है और होली इस विरासत के बीच एक पुल का काम करती रही है क्योंकि रंग तो सबके होते हैं, कोई एक रंग किसी का एक का नहीं होता | गंगा जमुनी-तहज़ीब में नवाबों के समय से ही 'पहले आप-'पहले आप' वाली शैली सराबोर है हालांकि ख़ुदग़र्ज़ आधुनिक शैली की पदचाप भी साफ़ सुनायी देती है लेकिन फिर भी इस शहर की आवाम का एक बड़ा तपका इस तहजीब को संभाले हुए है |

आख़िर में मैं आपको नज़ीर अकबराबादी के इन बेहतरीन मिसरों और गौहर जान के गाये इस होली गीत के साथ छोड़े जाता हूँ और तब तक आप खेलते रहिये अवध की गंगा-जमुनी होली....... आप सभी को होली मुबारक़ हो…… ख़ुश रहिये, आबाद रहिये और सियासतदानों के फरेबों से सतर्क रहिये जिन्होंने इस साझी विरासत का बेडा गर्क कर रक्खा है… J

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की……….

गौहर जान के बोल - मेरे हज़रात ने मदीने में मनाई होली...  


ये लेख 13 मार्च 2017 को gappagosthi.com पर प्रकाशित हुआ था | इसे आप नीचे दिए गए लिंक पर भी पढ़ सकते हैं | 
http://gappagosthi.com/pages/PC_Ganga_Jamuni_Holi.html